देहरादून उत्तराखंड के मसूरी में रविवार को देश के 11 हिमालयी राज्यों के हिमालयी कॉन्क्लेव पर देश भर की निगाहें हैं। नीति आयोग के सदस्यों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रतिनिधियों, छह पर्वतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के भी इस एक दिवसीय विचार विमर्श में उपस्थित रहने की संभावना है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने कहा कि रविवार को मसूरी में आयोजित हो रहे में हिमालयी राज्यों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर व्यापक चर्चा होगी। पर्यावरण संरक्षण, आपदा प्रबंधन जैसे विषयों पर भी विचार-विमर्श किया जाएगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि वन अधिनियम एवं वन क्षेत्र की अधिकता जैसे समान ज्वलन्त समस्याएं भी इस सम्मेलन में विमर्श का हिस्सा रहेंगी। सभी राज्यों के कॉमन एजेंडा पर भी सम्मेलन में चर्चा होगी। मुख्यमंत्री के अनुसार हिमालयी राज्य प्रधानमंत्री के जल-संचय, जल-संरक्षण की मुहिम को भी आगे बढ़ाएंगे। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के अनुसार हिमालयी राज्यों के सम्मेलन का प्रमुख एजेंडा जल संरक्षण रहेगा। नदियों, ग्लेशियर, झीलों तथा जल स्त्रोतों को संरक्षित करने के साथ ही सूख चुकी नदियों और जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने पर फोकस रहेगा भारत की अधिकांश नदियों का स्रोत हिमालय ही है. इसलिए प्रधानमंत्री के जल संचय अभियान में हिमालयी राज्यों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। 11 हिमालयी राज्य किस प्रकार जल संरक्षण में केंद्र का सहयोग कर सकते हैं, इस पर मंथन होगा। जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, आसाम, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम और मणिपुर के प्रतिनिधि इस कॉन्क्लेव में आमंत्रित हैं। इन 11 पर्वतीय राज्यों की विशिष्ट भौगोलिक बनावट, दुरुहता, दुर्गमता और अंतर्संरचनात्मक कमियों के साथ अवस्थापना के दोषों से जिन विकट समस्याओं का अनुभव किया जा रहा हैं, उन्हें समझने और उनके समाधान का यह बेहतर अवसर साबित हो सकता है। 11 राज्यों के प्रतिनिधि अपने पर्वतीय राज्यों द्वारा भोगी जा रही समस्याओं तथा इनके निदान हेतु व्यावहारिक, दृश्य और सारगर्भित सामाजिक योजनाओं का खाका प्रस्तुत करेंगे, जिसे पर्वतीय विकास की रणनीति बनाने हेतु नीति आयोग के सम्मुख रखा जाएगा। हिमालयी राज्यों में सबसे बड़ी समस्या तो रोजगार पाने के लिए स्थानीय निवासियों द्वारा किया गया प्रवास है। इससे उपजे पलायन से परंपरागत व्यवसाय तथा स्थानीय अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है। पलायन के कारण इस राज्य की अर्थव्यवस्था को मनी आर्डर इकॉनमी कहा जाता रहा। लोक थात और लोक शिल्प का अधोपतन जारी है। ऐसे में अपने राज्यों की वित्तीय स्थिति मजबूत करने के लिए अपने पर्यावरण क्षेत्र में दिए गए योगदान के ऐवज में पर्वतीय क्षेत्र अपनी नैसर्गिक प्राकृतिक संपदा द्वारा प्रदान की जा रही पारिस्थितिकी सेवाओं के बदले ग्रीन बोनस की भी मांग करता रहा है। वन कानूनों के अधकचरे क्रियान्वयन, हक हकूक की उपेक्षा, वनवासियों की व्यथा कथा और वन महकमे के तमाम तुगलकी फरमानों से हिमालय में पर्यावरण का अनुकूलतम संवर्धन और समुचित संरक्षण नहीं हो सका है। ग्लेशियर सिमट रहे हैं, बुग्यालों और फ्लोरा-फोना का अस्तित्व ही संकट में है। मसूरी के प्रस्तावित एक दिवसीय कानक्लेव में पर्वतीय प्रदेशों को विशिष्ट दर्जा दिए जाने की मांग भी प्रस्तावित है। उत्तराखंड को भी 14वें वित्त आयोग में विशेष दर्जा न मिल पाने का मलाल है। सम्मेलन में नीति आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों को मुख्यमंत्रियों और खासकर वित्त मंत्री की अध्यक्षता से स्पष्ट तथा दो टूक नीति का समर्थन मिलेगा, ऐसी राज्यों की आशा है। वह पर्वतीय प्रदेश की पीड़ा को समझें और उनकी तर्कसंगत समाधान की योजना बनाएं। पिछले 5 वर्षों में यह विरोध और अधिक लोचदार भी हो गया है। इनके निदान के लिए एक बेहतर व कारगर समंजन तथा संवाद समायोजन की आवश्यकता होती है, जिसके लिए आंचलिक विशिष्टताओं और स्थानीयता कि गहरी समझ व संवेदनशीलता होनी जरूरी है।
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