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नैनीताल दस हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल में फैले अथवा 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वनों को वन नहीं मानने के के 21 नवंबर 2019 के आदेश पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। इस संबंध में हाई कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार से 2 जनवरी 2020 तक जवाब दाखिल करने को कहा है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमेश रंगनाथन और जस्टिस आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई। नैनीताल के पर्यावरणविद प्रो. अजय रावत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि 21 नवंबर 2019 को उत्तराखंड के वन और पर्यावरण अनुभाग की ओर से वन को पारिभाषित करने का एक आदेश जारी किया गया है। इसमें उत्तराखंड में 10 हेक्टेयर से कम अथवा 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वन परिक्षेत्र को वनों की श्रेणी से बाहर रखा गया है। वन विभाग ने ऐसे वनों को वन नहीं माना है। याचिकाकर्ता का कहना था कि यह आदेश एक कार्यालयी आदेश है, जिसे लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो यह शासनादेश है और न ही यह कैबिनेट से पारित है। याचिकाकर्ता का कहना था कि सरकार ने इसे अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए जारी किया है। याचिकाकर्ता का यह भी कहना था कि फॉरेस्ट कन्जर्वेशन ऐक्ट 1980 के अनुसार प्रदेश में 71 प्रतिशत घोषित है। इसमें वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया है लेकिन इसके अलावा भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिनको किसी भी श्रेणी में नहीं रखा गया है। याचिका में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र, चाहे उसका मालिक कोई भी हो, उसे वनों के क्षेत्र की श्रेणी में रखा जाएगा। इसके अलावा वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नहीं है। याचिकाकर्ता का कहना था कि इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी में शामिल किया जाए जिससे इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके। पूरे मामले को सुनने के बाद हाई कोर्ट की खंडपीठ ने सरकार के आदेश पर रोक लगा दी।
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