देहरादून: भले हरक इस बार बर्खास्त होने के चलते विवादित होने से कांग्रेस में एंट्री इस बार उतनी हनक से न करा पाए हों, लेकिन भाजपा को उनकी बर्खास्तगी से झटके झेलने पड़ें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हरक सिंह रावत की भाजपा से विदाई और कांग्रेस में वापसी को लेकर अब सियासी नफा नुकसान का आंकलन किया जाने लगा है। हालांकि हरक के दावे तो उनके 30 सीटों पर उनके राजनीतिक प्रभाव होने के रहे हैं। उत्तराखंड की राजनीति में 25-27 सीटों पर रावत बिरादरी का प्रभाव को देखते हुए बात करें तो दो दर्जन सीटों पर रावतों में उनकी पैठ कुछ न कुछ जरूर है। भाजपा ने हालांकि हरक को एक गलत सूचना के आधार पर पार्टी से बर्खास्त कर तो दिया, लेकिन उसको इस विदाई से हो सकने वाले नुकसान की भरपाई के तमाम उपाय करते हुए भी देखे जाने से उसमें इसको लेकर बढी चिंता के संकेत साफ़ दिख रहे हैं। राज्य में रावतों की राजनीति के सिरमौर हरीश रावत और हरक रावत ही माने जाते हैं। क्योंकि रावतों के प्रभाव वाली अधिसंख्य सीटें गढ़वाल मंडल में पड़ती हैं। इसलिए रावतों में हरक अधिक प्रभावी माने जाते हैं। जबकि हरीश रावत मूल रूप से कुमाऊं मंडल से होने और उनकी छवि ठाकुर नेता की होने से उनका प्रभाव सभी ठाकुरों में समान माना जाता है, जिनमे रावत समेत सभी अन्य जाति के ठाकुर आ जाते हैं।इन दोनों नेताओं के ठाकुर और जाति विशेष के रावतों की राजनीति में ब्यापक पकड़ के मुकाबले भाजपा के त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत जिनको भाजपा ने मुख्यमंत्री भी बनाया रावतों में उतना असर नहीं रखते।भाजपा ने इसी प्रभाव को भांपकर उसके पाले में दो रावत नेताओं तीरथ और त्रिवेंद्र को पूर्व में मुख्यमंत्री बनाने और उनके भाजपा में मौजूदगी के बावजूद हरक के पार्टी से विदा होते ही दिवंगत सीडीएस जनरल विपित रावत के भाई को भाजपा की राजनीति में शामिल किया है। हालांकि वे चुनाव लड़ने से इंकार कर रहे हैं । रावतों के इसी महत्व को भांप भीतरघात को रोकने के लिए कांग्रेस ने भी तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद हरक को बिल्कुल आखिरी समय में कांग्रेस पार्टी में शामिल किया है।हरक सिंह रावत के प्रभाव वाले तमाम विधानसभा क्षेत्रों में हरीश रावत के साथ खड़े होने वाले कांग्रेस के युवा नेताओं की भी कतार लम्बी रही है।ऐसे में हरक के कांग्रेस में आ जाने से इन क्षेत्रों में भाजपा को और अधिक झटका लग सकता है। लैंसडौन, डोईवाला, केदारनाथ, चौबट्टाखाल , रुद्रप्रयाग , पौड़ी, कोटद्वार और श्रीनगर जैसे तमाम विधानसभा क्षेत्रों में हरक सिंह रावत बड़े नेता का दबदबा रखते हैं। ऐसे में अगर रावतों के प्रभाव वाली इनके अलावा अन्य सीटों पर थोडा बहुत भी प्रभाव वे डालें तो इन शेष 19 सीटों पर भी वे प्तोरभाव डाल सकते हैं। उत्तराखंड की राजनीति में 25-27 सीटों पर रावत बिरादरी का प्रभाव है। कहा जाता है कि इसी के चलते वे राज्य की 30 सीटों पर अपना राजनीतिक प्रभाव होने के दावे कर उत्तराखंड की राजनीति में खुद को सबसे कद्दावर नेता के बतौर पेश कर भाजपा और कांग्रेस दोनों पर ही दबाव बनाने का प्रयास करते रहे हैं ।हरक सिंह रावत की गढ़वाल संसदीय क्षेत्र की आठ सीटों पर मजबूत पकड़ के चलते उनका प्रभाव गढ़वाल संसदीय सीट पर होना भी स्वाभाविक है। राज्य बनने के बाद हुए राज्य के चार चुनावों में वे राज्य की तीन सीटों लैंसडौन, रुद्रप्रयाग और कोटद्वार से विधायक बनकर इसे साबित कर चुके हैं। जबकि पौड़ी सीट से तो वे अपनी राजनितिक पारी की शुरुवाद अविभाजित यूपी में ही कर चुके हैं। श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र में उनका घर पड़ता है वहां से छात्र जीवन में वे छात्र राजनीति करते रहे थे।इसी कारण भाजपा के कई मंत्री भी उनकी भाजपा से विदाई के चलते हार की जद में आ सकते हैं।खुद कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ने उनको कांग्रेस में शामिल करने के लिए अपने राजनीतिक आका हरीश रावत को मनाने में दिन रात एक इसलिए कर दिया क्योंकि श्रीनगर की जिस सीट से वे मैदान में भाजपा के मंत्री धन सिंह रावत के खिलाफ चुनाव में उतरे हैं। वहां हरक का प्रभाव उनको भी दीखता है।जबकि राज्य बनने से पूर्व यूपी के समय वे पौड़ी सीट से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुवाद करने के बाद वर्ष 1991 और 1993 में भाजपा के टिकट पर जीत चुके हैं। भाजपा के प्रदेश को लेकर तमाम विकास के दावों पर हमला करने के लिए हरक सिंह कांग्रेस पार्टी के लिए काम के साबित हो सकते हैं।कांग्रेस हरक सिंह रावत के सियासी रुतबे को अपनी खोई सियासी जमीन को वापस पाने के लिए बखूबी इस्तेमाल कर भाजपा को उनके जरिए मुसीबत में डाल सकती है।हरक सिंह के समर्थक भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियों में माने जाते हैं। हरक सिंह 1991 में ही यूपी सरकार के मंत्रिमंडल में सबसे कम आयु के मंत्री थे।भाजपा से अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले हरक ने मनमुटाव होने के बाद 1996 में भाजपा छोड़ दी। उन्होंने बसपा का दामन थामा। बसपा सुप्रीमो मायावती ने उन्हें पर्वतीय विकास परिषद में उपाध्यक्ष बनाया। एक महीने बाद ही वे उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड और महिला और बाल विकास बोर्ड के अध्यक्ष बनाए गए। रावण उत्तर प्रदेश बसपा के महामंत्री के साथ ही उत्तराखंड इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं। 1998 चुनाव में वह बसपा के टिकट से पौड़ी गढ़वाल सीट पर जीत नहीं दर्ज कर पाए। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। उत्तराखंड बनने के बाद हरक सिंह के इर्द गिर्द राज्य की राजनीति घूमती रही। लैंसडौन सीट से 2002 में कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा पहुंचे हरक साल 2002 के चुनाव में कांग्रेस की उत्तराखंड गठन के बाद पहली चुनी गई सरकार में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने हरक को राजस्व, खाद्य और आपदा प्रबंधन जैसे मंत्रालयों में कैबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी दी। मंत्री बनने के करीब डेढ़ साल बाद ही एक महिला यौन उत्पीड़न के आरोपों के चलते उन्हें मंत्री पद से त्यागपत्र देने पड़ा। इसके बावजूद भी 2007 के चुनाव में वे जीत दर्ज कर चुके हैं। साल 2007 में वह कांग्रेस के प्रतिपक्ष की भूमिका में आ जाने पर नेता प्रतिपक्ष बने थे और उत्तराखंड में हरीश रावत का दाहिना हाथ माने जाते थे। साल 2012 में कांग्रेस की सरकार बनने पर विजय बहुगुणा ने फिर उन्हें मंत्री बनाया।विजय बहुगुणा को कांग्रेस ने हटाकर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया तो फिर से हरक मंत्री बने 4 साल बाद यानी 2016 में अधूरे कार्यकाल में उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर भाजपा का दामन थाम लिया।साल 2017 के चुनाव में हरक ने भाजपा से चुनाव जीता त्रिवेंद्र , तीरथ और धामी सरकार में बढ़ते मंत्री मंडल पोर्ट फोलियो के साथ अपनी बर्खास्तगी तक मंत्री बने रहे।
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