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इशिता मिश्रा, देहरादून दीवान सिंह गर्ब्याल केा अकसर अपनी बात लोगों को समझाने में मेहनत करनी पड़ती है। के उनके शहर धारचूला में गिनती के लोग ही उनकी भाषा समझ पाते हैं। 84 साल के दीवान सिंह प्राचीन स्थानीय समुदाय के सबसे उम्रदराज लोगों में से एक हैं। 'रंग' नामके इस समुदाय की मातृभाषा '' कहलाती है। इस प्राचीन भाषा की कोई लिपि नहीं है यह सिर्फ बोलने के जरिए ही चलन में है। दीवान सिंह की ही तरह दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में भाषा की प्रफेसर संदेशा रायापा गर्ब्याल भी इस समस्या से परेशान हैं। वह भी रंग समुदाय की हैं, लेकिन रंग समुदाय पर छपे एक लेख को पढ़ने के बाद वह इतनी व्याकुल हुईं कि उन्होंने इस भाषा को फिर से जीवित करने का बीड़ा उठा लिया। और सोशल मीडिया पर आए लोग संदेशा कहती हैं, 'उस लेख में रंग समुदाय और उनकी संस्कृति के बारे में गलत तथ्य दिए हुए थे। ऐसे पलों में हमें दस्तावेजों की अहमियत का अहसास होता है।' इसके बाद संदेशा ने समुदाय के दूसरे लोगों से आपस में जुड़ने की अपील की। जल्द ही कई वॉट्सऐप ग्रुप बन गए जहां लोग लोग रंगलो भाषा में ऑडियो रिकॉर्डिंग पोस्ट करने लगे। कुछ लोग ट्विटर और फेसबुक पर रंगलो में पोस्ट लिखने लगे। कहानियां, कविताएं, गाने होते हैं पोस्ट धारचूला के एक व्यवसायी हैं कृष्ण गर्ब्याल, वह चार वॉट्सऐप ग्रुप चलाते हैं जिनमें कुल मिलाकर 1,000 सदस्य हैं। ये लोग रंगलो में कहानियां, कविताएं और गाने पोस्ट करते हैं। कृष्ण कहते हैं, 'हम भाषा सिखाने की कोशिश कर रहे हैं। सोशल मीडिया के जरिए इसका अभ्यास तो होता ही है कोई संदेह भी हो तो वह भी दूर हो जाता है। यह एक ऐसी कक्षा की तरह है जहां हर व्यक्ति शिक्षक और छात्र दोनों है।' एक और वॉट्सऐप ग्रुप की संस्थापक हैं वैशाली गर्ब्याल (22)। वैशाली को पता है कि यह कितना मुश्किल काम है। वह कहती हैं, 'मेरे 16 साल के भाई को रंगलो बिल्कुल नहीं आती। अगर इन ग्रुपों की कोशिश से कुछ लोगों में ही सही पर रंगलो सीखने की चाह पैदा होती है तो हमारा मकसद पूरा हो जाएगा।' कुल 10,000 सदस्य बचे हैं इस समुदाय में रंग कल्याण संस्थान के अध्यक्ष बीएस बोनल कहते हैं, 'रंग समुदाय में करीब 10, 000 सदस्य हैं जिनमें से अधिकांश उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले और नेपाल के कुछ हिस्सों में रहते हैं।' भारत में रंग को भोटिया जनजाति की उप जाति के रूप में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। बोनल की उत्पत्ति को एक किंवदंती से जोड़ते हुए बताते हैं, 'जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तो वे कुटी गांव पहुंचे जहां रंग कबीले ने उनका स्वागत किया था। उनकी मां कुंती के नाम पर ही गांव का नाम कुटी पड़ा।' कोई लिपि न होना बड़ी चुनौती साल 2018 में ओएनजीसी ने रंगलो के संरक्षण के लिए रायापा के प्रोजेक्ट को फंड दिया था। किसी भी भाषा के संरक्षण में सबसे बड़ी समस्या होती है उसका लिपिबद्ध न होना। लेकिन लिपि तैयार करना भी आसान नहीं है। रायापा कहती हैं, 'पहली चुनौती है इस भाषा के लिए लिपि का चुनाव। इसके बाद समुदाय के लोगों से बात करके इसका शब्दकोश तैयार करना है। युवा लोग इसे रोमन में लिखने की मांग कर रहे हैं जबकि बुजुर्ग इसे देवनागरी लिपि में तैयार करने पर जोर दे रहे हैं। लेकिन लोग फिलहाल दोनों तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं।'
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