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देहरादून वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के एक शोध में यह आशंका जताई गई है कि हिमालयवर्ती राज्यों, जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश में पाई जाने वाली मछलियों की करीब 150 प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ सकता है। सबसे ज्यादा खाई जाने वाली जो फिलहाल करीब 16,251 स्क्वेयर किलोमीटर में पाई जाती है, वह अपना 21% क्षेत्र खो देगी। प्रदूषण, ग्लोबल वॉर्मिंग से नुकसान वैज्ञानिकों का कहना है कि नैचरल हैबिटैट में इंसानों के दखल के कारण हिमालय की मछलियों के लिए हालात गंभीर हो रहे हैं। इसके अलावा प्रदूषण, ग्लोबल वॉर्मिंग, नदियों पर बांध बनने और विदेशी मछलियों को लाए जाने से भी इन मछलियों पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। 1860 में अंग्रेज हिमालय में नाम की मछली लाए थे जिसके कारण स्थानीय प्रजातियों पर खतरा पैदा हो गया है। बढ़ते तापमान के कारण टकराव प्रॉजेक्ट साइंटिस्ट डॉ. विनीत दुबे ने बताया है, 'ब्राउन ट्राउट अंग्रेजों का हमारे लिए तोहफा है। वे 1860 में फिशिंग स्पॉर्ट के तौर पर जम्मू-कश्मीर में लाए और यह उनके खाने में भी शामिल हो गई। हालांकि, यह स्नो ट्राउट और हिमालय की मछलियों की 150 प्रजातियों के लिए खतरा बन गई है।' ब्राउन ट्राउट बर्फीले पानी की नदियों में ऊंचे स्थानों पर पाई जाती है। यह मांसाहारी होती है जबकि स्नो ट्राउट ठंडे पानी में बीच की ऊंचाई पर पाई जाती है और यह शाकाहारी होती है। सीनियर साइंटिस्ट ऑर प्रफेसर बढ़ते तापमान ने मछलियों को ऊंचाई पर जाकर ठंडक तलाशने को मजबूर कर दिया है जिससे स्नो और ब्राउन ट्राउट में टकराव की स्थिति पैदा हो गई जिसमें ब्राउन ट्राउट भारी पड़ रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक करीब हिमालय के इलाके में बने 200 से ज्यादा बांधों ने भी इन मछलियों के प्राकृतिक आवास पर खतरा पैदा किया है। बांधों ने बढ़ाई मुसीबत सीनियर रीसर्चर आशना शर्मा ने बताया, 'हमारे शोध में पता चला है कि ऊंचाई के इलाकों की मछलियां अपने प्राकृतिक आवास में तब आराम से रह पाती हैं जब वहां बांध नहीं बने होते, जैसे हिमाचल प्रदेश की तीर्थन नदी। इसी तरह माहसीर (मछली की एक प्रजाति) उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल की नयार नदी में पलती है। हमारी रीसर्च से इशारा मिलता है कि 2050 तक स्नो ट्राउट जम्मू-कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश के हिमालय के करीब 400 किमी इलाके से गायब हो जाएगी।' सीनियर साइंटिस्ट डॉ जेए जॉनसन ने बताया है, 'हमने अमेरिका, यूके, फ्रांस और चीन के क्लाइमेट मॉडल्स को देखा है जिससे भविष्य में क्लाइमेट चेंज के असर का पूर्वानुमान लगाया जा सके कि वह कैसा होगा और हिमालय के इकोसिस्टम को उससे कैसे बचाया जा सके।'
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